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Saturday, August 20, 2022

मूर्तिकला

 भारत की मूर्तिकला



नेपाली मल्ल वंश की १४वीं शती की बहुरंगी लकड़ी की मूर्ति

भारत के वास्‍तुशिल्‍प, मूर्तिकला, कला और शिल्‍प की जड़े भारतीय सभ्‍यता के इतिहास में बहुत दूर गहरी प्रतीत होती हैं। भारतीय मूर्तिकला आरम्‍भ से ही यथार्थ रूप लिए हुए है जिसमें मानव आकृतियों में प्राय: पतली कमर, लचीले अंगों और एक तरूण और संवेदनापूर्ण रूप को चित्रित किया जाता है। भारतीय मूर्तियों में पेड़-पौधों और जीव जन्‍तुओं से लेकर असंख्‍य देवी देवताओं को चित्रित किया गया है।



भारत की सिंधु घाटी सभ्‍यता के मोहनजोदड़ों के बड़े-बड़े जल कुण्‍ड प्राचीन मूर्तिकला का एक श्रेष्‍ठ उदाहरण हैं। दक्षिण के मंदिरों जैसे कि कांचीपुरम, मदुरै, श्रीरंगम और रामेश्‍वरम तथा उत्तर में वाराणसी के मंदिरों की नक्‍काशी की उस उत्‍कृष्‍ट कला के चिर-प्रचलित उदाहरण है जो भारत में समृद्ध हुई।




केवल यही नहीं, मध्‍य प्रदेश के खजुराहो मंदिर और उड़ीसा के सूर्य मंदिर में इस उत्‍कृष्‍ट कला का जीता जागता रूप है। सांची स्‍तूप की मूर्तिकला भी बहुत भव्‍य है जो तीसरी सदी ई.पू. से ही इसके आस-पास बनाए गए जंगलों (बालुस्‍ट्रेड्स) और तोरण द्वारों को अलंकृत कर रही हैं। मामल्‍लापुरम का मंदिर; सारनाथ संग्रहालय के लायन केपीटल (जहां से भारत की सरकारी मुहर का नमूना तैयार किया गया था) में मोर्य की पत्‍थर की मूर्ति, महात्‍मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं को चित्रित करने वाली अमरावती और नागर्जुनघोंडा की वास्‍तुशिल्‍पीय मूर्तियां इसके अन्‍य उदाहरण हैं।


हिन्‍दु गुफा वास्‍तुशिल्‍प की पराकाष्‍ठा मुम्‍बई के निकट एलीफेंटा गुफाओं में देखी जा सकती है और इसी प्रकार एलोरा के हिन्‍दु और जैन शैल मंदिर विशेष रूप से आठवीं शताब्‍दी का कैलाश मंदिर वास्‍तुशिल्‍प का यह रूप देखा जा सकता है।


इतिहास के कला खंडों के समृद्ध साक्ष्‍य संकेत करते हैं कि भारतीय शिल्‍प कला को एक समय पूरे विश्‍व में उच्‍चतम स्‍थान प्राप्‍त था।


मथुरा कला 

मथुरा में लगभग तीसरी शती ई०पू० से बारहवीं शती ई० तक अर्थात डेढ़ हजार वर्षों तक शिल्पियों ने मथुरा कला की साधना की जिसके कारण भारतीय मूर्ति शिल्प के इतिहास में मथुरा का स्थान महत्त्वपूर्ण है। कुषाण काल से मथुरा विद्यालय कला क्षेत्र के उच्चतम शिखर पर था। सबसे विशिष्ट कार्य जो इस काल के दौरान किया गया वह बुद्ध का सुनिचित मानक प्रतीक था। मथुरा के कलाकार गंधार कला में निर्मित बुद्ध के चित्रों से प्रभावित थे। जैन तीर्थंकरों और हिन्दू चित्रों का अभिलेख भी मथुरा में पाया जाता है। उनके प्रभावाशाली नमूने आज भी मथुरा, लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद में उपस्थित हैं।



इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि मधु नामक दैत्य ने जब मथुरा का निर्माण किया तो निश्चय ही यह नगरी बहुत सुन्दर और भव्य रही होगी। शत्रुघ्न के आक्रमण के समय इसका विध्वंस भी बहुत हुआ और वाल्मीकि रामायण तथा रघुवंश, दोनों के प्रसंगों से इसकी पुष्टि होती है कि उसने नगर का नवीनीकरण किया। लगभग पहली सहस्राब्दी से पाँचवीं शती ई० पूर्व के बीच के मृत्पात्रों पर काली रेखाएँ बनी मिलती हैं जो ब्रज संस्कृति की प्रागैतिहासिक कलाप्रियता का आभास देती है। उसके बाद मृण्मूर्तियाँ हैं जिनका आकार तो साधारण लोक शैली का है परन्तु स्वतंत्र रूप से चिपका कर लगाये आभूषण सुरुचि के परिचायक हैं। मौर्यकालीन मृण्मूर्तियों का केशपाश अलंकृत और सुव्यवस्थित है। सलेटी रंग की मातृदेवियों की मिट्टी की प्राचीन मूर्तियों के लिए मथुरा की पुरातात्विक प्रसिद्ध है।


लगभग तीसरी शती के अन्त तक यक्ष और यक्षियों की प्रस्तर मूर्तियाँ उपलब्ध होने लगती हैं।[2] मथुरा में लाल रंग के पत्थरों से बुद्ध और बोद्धिसत्व की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं।[3] महावीर की मूर्तियाँ भी बनीं। मथुरा कला में अनेक बेदिकास्तम्भ भी बनाये गये। यक्ष यक्षिणियों और धन के देवता कुबेर की मूर्तियाँ भी मथुरा से मिली हैं। इसका उदाहरण मथुरा से कनिष्क की बिना सिर की एक खड़ी प्रतिमा है। मथुरा शैली की सबसे सुन्दर मूर्तियाँ पक्षियों की हैं जो एक स्तूप की वेष्टणी पर खुदी खुई थी। इन मूर्तियों की कामुकतापूर्ण भावभंगिमा सिन्धु में उपलब्ध नर्तकी की प्रतिमा से बहुत कुछ मिलती जुलती है।

गांधार कला

गांधार कला एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय कला है। इस कला का उल्लेख वैदिक तथा बाद के संस्कृत साहित्य में मिलता है। सामान्यतः गान्धार शैली की मूर्तियों का समय पहली शती ईस्वी से चौथी शती ईस्वी के मध्य का है तथा इस शैली की श्रेष्ठतम रचनाएँ ५० ई० से १५० ई० के मध्य की मानी जा सकती हैं। गांधार कला की विषय-वस्तु भारतीय थी, परन्तु कला शैली यूनानी और रोमन थी। इसलिए गांधार कला को ग्रीको-रोमन, ग्रीको बुद्धिस्ट या हिन्दू-यूनानी कला भी कहा जाता है। इसके प्रमुख केन्द्र जलालाबाद, हड्डा, बामियान, स्वात घाटी और पेशावर थे। इस कला में पहली बार बुद्ध की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं।



इनके निर्माण में सफेद और काले रंग के पत्थर का व्यवहार किया गया। गांधार कला को महायान धर्म के विकास से प्रोत्साहन मिला। इसकी मूर्तियों में मांसपेशियाँ स्पष्ट झलकती हैं और आकर्षक वस्त्रों की सलवटें साफ दिखाई देती हैं। इस शैली के शिल्पियों द्वारा वास्तविकता पर कम ध्यान देते हुए बाह्य सौन्दर्य को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया। इसकी मूर्तियों में भगवान बुद्ध यूनानी देवता अपोलो के समान प्रतीत होते हैं। इस शैली में उच्चकोटि की नक्काशी का प्रयोग करते हुए प्रेम, करुणा, वात्सल्य आदि विभिन्न भावनाओं एवं अलंकारिता का सुन्दर सम्मिश्रण प्रस्तुत किया गया है। इस शैली में आभूषण का प्रदर्शन अधिक किया गया है। इसमें सिर के बाल पीछे की ओर मोड़ कर एक जूड़ा बना दिया गया है जिससे मूर्तियाँ भव्य एवं सजीव लगती है। कनिष्क के काल में गांधार कला का विकास बड़ी तेजी से हुआ। भरहुत एवं सांचीमें कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप गांधार कला के उदाहरण हैं।[2]



इतिहास के ग्रन्थों का कभी ना कभी नाश होना अटल है । यह जान कर ही शायद भारतीय जनता ने अनंत काल तक प्रचलन में रहने वाली  कथा कहानियों के माध्यम से इतिहास बनाया है। इतिहास को क्रोध आया । उसने बदला लिया और सबसे ज्यादा समय तक अभंग रहने वाले पाषाणों पर उसने अपनी आत्मा खोदकर रखी । भारतीय धर्म ने भी अपनी कथा पाषाणों पर ही चित्रित की है ।


भारतीयों का धर्म जैसे जैसे उत्कर्ष तक पहुंचने लगा वैसे वैसे उसका रूप अधिकाधिक सत्वहीन और चिंतनहीन बनता गया । पाषाण जैसी सबसे भारी चीज पर जब भारत का धर्म ज्यादा पैमाने पर खोदा जा रहा था , उसी समय चिंतन में खोखलापन बढ़ रहा था । दुनिया के किसी भी अन्य देश ने अपनी आत्मा के इतिहास को  और अपने इतिहास की आत्मा को भारत के समान पत्थर पर खोदकर लुभावनी शकल नहीं दी होगी । एक तरफ इतिहास और धर्म विषयक चिंतन में स्मिता और वहीं दूसरी तरफ धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं के काल्पनिक चित्रों में श्वास रोकने वाली लगभग चिरंतन सुन्दरता ।


भगवान बुद्ध व महावीर न जाने वास्तव में कैसे दिखाई देते थे । मगर उनकी मृत्यु के के करीबन ३ सौ साल बीत जाने के बाद जिन शिल्पकारों ने उनकी मूर्तियाँ खोदीं , उन्होंने उन मूर्तियों में महापुरुषों की शिक्षा का मर्म  इस तरह साकार किया है कि वे गोया सजीव प्रतीत होती हैं । कई तरह के रूपों में बुद्ध  और महावीर को मूर्तियों में चित्रित किया गया है । कहीं चिंतन मग्न तो कहीं करुणा निधि , कहीं अभय मुद्रा में तो कहीं विकारों पर विजय प्राप्त किये हुए । जिस तरह  हाथों और पैरों पर ठोंकी हुई कीलों की एक ही शकल में ईसा मसीह का स्वरूप दिखाई देता है वैसे बुद्ध और महावीर की मूर्तियों का नहीं । भारतीय शिल्पकारों ने उनका एक ही एक रूप  चित्रित करने का बन्धन नहीं स्वीकारा। अपनी इच्छा के अनुसार अपने आराध्य देवता का चित्र रेखांकित करने की आजादी युरोपीय चित्रकारों को होगी । लेकिन शिल्पकारों को नहीं होगी भारतीय शिल्पकार ही इस सम्बन्ध में पूर्णतया स्वतंत्र मालूम होते हैं ।




महावीरबुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ अनेक रूपों में होने पर भी उन सभी की आस्था व शिल्पशैली एक जैसी है । सभी मूर्तियाँ किसी एक्च ही शिल्पकार ने नहीं खोदीं हैं । कितने भी महान शिल्पकार के लिए यह असंभव था । पीढ़ी पीढियों के अथक परिश्रमों का वह फल है । तो भी बुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ एक जैसी दिखती हैं ऐसा शायद ही कोई कह सकता है ।


बुद्ध की प्रतिमा में बुद्ध निश्चिंत दिखाई देते हैं तो महावीर की मुद्रा एक तरह से तंग दिखाई देती है ।  दोनों की मूर्तियाँ देखने पर लगता है कि मानव को उपलब्ध होने वाली श्रेष्ठ विजय दोनों को प्राप्त हुई है । मगर विजीत बुद्ध मुद्रा पर निश्चिंतता है तो विजयी महावीर का चेहरा जो तंग है । इन धर्म प्रवर्तकों की सीख समझाने का जो काम बड़े बड़े ग्रन्थ और धर्म प्रबन्ध कर नहीं पाये , वह काम इन शिल्पकारों ने अपने धर्म पुरुषों की प्रतिमाएं खोदकर अत्यधिक संक्षिप्त लेकिन साफ साफ तय किया है ।


सारनाथ उसी तरह मथुरा , नालंदा , अजंता , वेरूळ के महान बुद्ध की मूर्ति के चेहरे पर सब जगह प्रसन्न विजेता का भाव मालूम होता है । श्रवण बेळगोळा में महावीर परम्परा के बाहुबली की एक बहुत ही प्रचंड मूर्ति है । जो कि दुनिया की सबसे प्रचंड मूर्ति है । विजयी बाहुबली की मुद्रा पर अन्यत्र के समान यहां भी आत्मनिग्रह प्रतीत होता है ।उस मुद्रा की तरह ही लगता है कि यह मुद्रा गोया हमें कहती है कि आदमी कभी भी स्वयं पर अति विजय नहीं पा सकता । मन के बैल को पकड़ने में सफलता मिल जाने के बाद भी उसे अनिर्बंध नहीं छोड़ना चाहिए ।

 जैन धर्म और उसके अनुयायिओं की , विशेष रूप से जैन मुनियों कीकठोर व्रत साधना उस धर्म के कट्टर पंथ की एवं निरंतर दक्षता वृत्ति की साख है । बुद्ध का ऐसा नहीं है । बुद्ध मूर्ति देखने पर ऐसा लगता है कि विजय प्राप्ति के बाद भी विजय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लगेगा ऐसी मनोदशा प्राप्त करना संभव है । यहाँ यह सवाल ही नहीं उपस्थित होता कि दोनों में से कौन सी प्रवृत्ति ठीक है । जो कि दोनों धर्म पंथों का आगे चलकर अध:पतन ही हुआ है । कौन अधिक अच्छा था यह सवाल भी अप्रस्तुत है । चूंकि कहा जा सकता है कि मानवीय दृष्टि से बुद्ध ज्यादा योग्य था  तो ऐसा भी कहना संभव है कि तार्किक दृष्टि से महावीर ज्यादा ठीक थे । मैं यहाँ केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि शिल्पकारों ने उन दोनों की विचार प्रणाली को उनकी शरीराकृतियों के और मुद्राओं के माध्यम के द्वारा उत्तम रीति से पाषाणांकित की है । 


मूर्तिकला की आधुनिकता

भारत में आधुनिक चित्रकला को प्रारंभ करने का  श्रेय यदि अवनीन्द्रनाथ टैगोर को जाता है  तो मूर्तिकला में आधुनिकता का श्रीगणेश करने का श्रेय रामकिंकर बैज को  है । रामकिंकर बैज को आधुनिक भारतीय मूर्तिकला का जनक कहा जाता है । रामकिंकर का जन्म 1906 में पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा में एक अत्यंत विपन्न परिवार में हुआ था लेकिन अपने दृढ़ संकल्प और लगन से उन्होंने मूर्तिकला में जिस  ऊंचाई को छुआ वह परीकथा सा है । उन्होंने परवर्ती कई भारतीय मूर्तिकारों को अपनी कला से प्रेरित किया । यही नहीं साहित्यकार और सिनेमा के निर्देशक को भी अपनी असाधारण जीवनी को लिखने एवं फिल्मांकन के लिए प्रेरित किया ।

      20वीं सदी के प्रारंभ होने के पूर्व तक कई भारतीय मूर्तिकार यूरोपीय शैली में मूर्तियों के निर्माण के लिए प्रेरित या यों कहे कि बाध्य थे । इनमें प्रमुख थे – रोहित कांतनाग (1868-1895), फणीन्द्रनाथ बसु (1888-1926) हिरणमय राय चौधरी (1884-1962), देवीप्रसाद राय चौधरी (1899-1975) एवं प्रमथनाथ मल्लिक (1894-1963) एवं अन्यान्य । 1906 के आसपास अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने जब नई चित्र शैली – ‘बंगाल स्कूल’ का सूत्रपात किया तो भारत में चित्रकला के क्षेत्र में तो अभिनव प्रयोग हुए , परंतु पता नहीं क्यों चित्रकला में आधुनिकता का नवोन्मेष करने वालों ने मूर्तिकला के क्षेत्र में कोई पहल नहीं की । यहाँ तक कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी उस समय किसी को प्रेरित नहीं किया । 20वीं सदी के प्रारंभ में कोलकाता की ‘बाबू-संस्कृति’ में विदेशी कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों की धूम थी । संपन्न लोग अपने घरों को सजाने के लिए विदेशी कलाकारों से मूर्तियाँ बनबाते थे । विदेशी कलाकारों की कलाकृतियाँ तब संपन्नता की निशानी समझी जाती थीं । यहाँ तक कि स्मारकीय मूर्तियाँ ब्रिटेन से मंगवायी जाती थी 

ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में देवीप्रसाद राय चौधरी ने पहली बार यूरोपीय शैली से थोड़ा हटकर भारतीय स्पर्श देने की कोशिश की । देवीप्रसाद राय चौधरी (1899-1975) आचार्य अवनीन्द्रनाथ टैगोर के योग्य शिष्यों में गिने जाते हैं । चित्रकला और मूर्तिकला, दोनों विषयों पर उनका समान अधिकार था । ओरियंटल आर्ट स्कूल (कोलकाता) से शिक्षा ग्रहण कर वहीं शिक्षक बन गये । बाद में मद्रास चले गये और वहाँ के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्टस के प्रिंसिपल बने । वे पहले आधुनिक मूर्तिकार थे जिन्होंने ब्रोंज माध्यम में काम किया । उनकी आदमकद मूर्तियों में गति , उर्जा व भाव का अदभुत समन्वय है । बिहार के पटना सचिवालय के सामने जो शहीद स्मारक की मूर्ति हैं उसमें गति देखी जा सकती है  । कला जगत में उनके अतुल्य योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से 1958 में सम्मानित किया ।

      देवीप्रसाद चौधरी के बाद रामकिंकर बैज ने मूर्तिकला में नए आयाम जोड़कर आधुनिक भारतीय मूर्तिकला को सुदृढ़ आधार प्रदान किया । 1925 में रामकिंकर  बैज शांति निकेतन आ गए । नंदलाल बोस और रवीन्द्रनाथ ने उनकी प्रतिभा को उभरने का भरपूर मौका दिया । चित्रकला के साथ-साथ उन्होंने मूर्तिकला भी सीखी परंतु प्रसिद्धि मूर्तिकार के रूप में ज्यादा है । 1938 में उन्होंने ‘संथाल परिवार’ की मूर्ति बनायी । देवी देवता, राजा-महाराजा और महान विभूतियों के समकक्ष उन्होंने संथाली परिवार को निर्मित कर साधारण जन को गरिमा प्रदान की जो उनकी सामाजिक राजनीतिक चेतना को दर्शाता है ।उन्होंने अपने आसपास के परिवेश का गहन अध्यन किया था । शांतिनिकेतन में बनी उनकी मूर्तियों को देखकर यह जाना जा सकता है कि विषय-वस्तु और बाह्य-परिवेश (जहाँ मूर्तियां स्थापित है) में कैसी अदभुत समरसता वे रचते थे । मूर्तिकला में रामकिंकर ने आधुनिक कला की सभी प्रवृतियों को अपनाया –यथार्थवाद, घनवाद से लेकर अतियथार्थवाद तक । मूर्तियों के माध्यम के लिए परंपरागत चीजों को छोड़कर सीमेंट तक से मूर्तियाँ बनाये ।

                               

      रामकिंकर बैज के व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रभावित होकर बांग्ला के चर्चित उपन्‍यासकार समरेश बसु ने उनके जीवन पर आधारित एक उपन्‍यास ‘ देखी नाई फिरे ’ (मुड़कर नहीं देखा) सृजित कर रामकिंकर को जन साधारण में ‘ आईकॉन ’ बना दिया । प्रसिद्ध फिल्‍मकार ऋत्विक घटक भी उनकी असाधारण प्रतिभा के कायल थे । 1975 में उन्‍होंने सामकिंकर बैज के ऊपर एक डॉक्‍यूमेंट्री बनाई जिसमें उन्‍होंने मूर्तिकार के अंदर जो एक राजनीतिक चेतना थी उसे उद्घटित किया ।

      देवीप्रसाद चौधरी और रामकिंकर बैज के शिष्‍यों – धनराज भगत, पी.वी.जानकीराम, रजनीकांत पंचाल, ए एम.डाबरीवाला, राघव कनोरिया  जैसे कुछ मूर्तिकारों ने आधुनिक भारतीय शैली की मूर्तिकला को और आगे बढ़ाने में अपना महत्‍वपूर्ण योगदान दिया । बंगाल के जिन मूर्तिकारों ने इस दिशा में अपने कदम बढ़ाए उनमें प्रमुख है- सुधीर रंजन खस्‍तीगीर (1907-1974 ),प्रदोष दास गुप्‍त (1912-1991),चिंतामणि कर (1915-2005), संखो चौधरी (1916-2006), सोमनाथ होर (1921-2006), मीरा मुखर्जी (1923-1998), सुनील कुमार पाल (1920) इत्‍यादि । इन कलाकारों ने अपनी निज की शैली तो विकसित की ही है साथ ही मूर्तिशिल्‍प के परंपरागत आधार तत्‍वों एवं दर्शन में पश्चिम के कला  शैली व तत्‍वों का समावेश कर भारतीय मूर्तिकला को विविधता प्रदान करने के साथ साथ आधुनिक प्रवृतियों से भी समृद्ध किया । मानवीय सौंदर्य एवं प्रकृति को रूपायित करने के अलावा इन कलाकारों ने अपनी निर्मितियों में सामाजिक विसंगतियों को भी प्रकट किया ।

      चिंतामणि कर ने आधुनिक मूर्तिकला को विषय एवं रूपों को अपनाने से पहले प्राचीन भारतीय मूर्तिकला का इतना अभ्‍यास कर लिया था कि उनके मूर्तिशिल्‍प में वर्तमान ही नहीं भूत और भविष्‍य के रूपों को भी देखा जा  सकता है । उनकी कला निर्मितियों में एक ओर जहाँ मथुरा की पाषाण प्रतिमाओं की लयात्मकता और सादगी है वहीं दूसरी ओर हेनरी मूर की मूर्तियों की पृथलता, कामनीयता एवं नवनीयता का भी दर्शन है 

 मूर्तियों के वक्रता में लय  है जो उनके मूर्ति  शिल्प की खास पहचान है ।  शंखो चौधरी नारी आकृति, वन्‍यजीवन के अलावा पोट्रेट के भी सिद्धहस्‍त कलाकार थे । लोक और आदिवासी कला के साथ उनका विशेष लगाव था । शंखो चौधरी की मूर्तिकला का रेंज माध्यम के हिसाब से काफी विस्तृत था । उनकी बनाई मूर्तियों में व्‍यक्ति की संपूर्ण व्‍यक्तित्‍व की झलक मिलता है । 1971 में भारत सरकार ने उन्‍हें ‘ पद्मश्री ’ से सम्‍मानित किया । शंखो चौधरी ने 1976 में दिल्‍ली के ‘ गढ़ी ‘ में समु‍दायिक कार्यशाला की शुरूआत की जो उनके रचनात्‍मक प्रबंधन कौशल का  कमाल है । मूर्तिशिल्‍प,ग्राफिक्‍स, चित्रकारी समेत वहॉं 150 से भी ज्‍यादा कलाकार सृजनरत रहते हैं ।शंखो चौधरी के निधन के समय बंगाल ने अपने इस कला पुत्र का यथेष्‍ट सम्‍मान नहीं दिया । शायद इसलिए कि प्रारंभिक दिनों को छोड़कर उनका अधिकांश समय बंगाल से बाहर गुजरा था परंतु वे बंगाल के कलाकार के रूप में ही जाने जाते थे ।

      सोमनाथ होर (1921-2006) मूर्तिकार के साथ प्रिंटमेकर भी थे । वे तब चर्चा में आये जब 1943 में बंगाल में पड़े दुर्भिक्ष को, अपने ग्रुप के अन्य साथियों के साथ चित्रों में रूपायित किया और बंगाल-स्‍कूल की प्रवृत्तियों पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाये । उन्‍होंने युद्ध और अकाल की विभीषिका को अपनी मूर्तियों में इस कदर ढ़ाला कि देखने वाले को एकबारगी झकझोर देता हैं । 2006 में उनके निधन पर पं. बंगाल के तत्‍का‍लीन राज्‍यपाल गोपाल कृष्‍ण गांधी ने कहा कि सोमनाथ होर एक कलाकार से भी ज्‍यादा बड़े थे । वे मानवीय दुर्दशा के मात्र प्रत्‍यक्षदर्शी नहीं थे वरन् अपनी गवाही को उन्‍होंने कला के माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त किया ।

      बाद की पीढ़ी यानि छठे और सातवें दशक में क्रियाशील मूर्तिकारों ने मूर्तिशिल्प में नित्य नये-नये आयाम जोड़े और नितांत भारतीय शैली का निर्माण किया जो पश्चिमी शैली से बिल्कुल अलग थी । इन कलाकारों की सौंदर्यात्मक  अभिव्यक्ति के केन्द्र में है – अंतर्मन की भावनाओं का प्रकटीकरण तथा मूर्तिकला के अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमानों के साथ कदम-कदम से मिलाकर चलने की प्रवृत्ति । इस दौर के उल्लेखनीय शिल्पी हैं – सरवरी राय चौधरी ( 1933-2012), माधव भट्टाचार्जी (1933), विपिन गोस्वामी (1934), उमा सिद्धांत (1933), शंकर घोष (1934), दिलीप सरहर (1944) एवं माणिक तालुकदार (1944) इन मूर्तिकारों के प्रेरक एवं उद्दीप्त विचारों को उनकी विलक्षण मूर्तियों में देखा जा सकता है ।

      मूर्तिकारों की परवर्ती पीढ़ी ने इस त्रिआयामी कला में शैली, विषय और माध्यम तीनों ही स्तर पर नये-नये अनुदर्शनों का समावेश किया । इस पीढ़ी के कलाकारों ने परंपरागत भारतीय मूर्तिशिल्प का अवशेष मात्र भी नहीं है । इन कलाकारों के लिए त्रिआयामी मूर्तिकला में ठोस आयतन , मात्रा और स्थूलता जैसे विषय महत्वपूर्ण नहीं है , बल्कि इनके लिए महत्वपूर्ण  है -‘समय’ , जिस समय में वे जी रहे हैं ।

 आधुनिक समय में विज्ञान एवं तकनीक का प्रचलन सामाजिक जीवन में बढ़ा है, जो उनके शिल्प रचनाओं में समाविष्ट है । इन कलाकारों के स्कल्पचर में  जैविक संरचना और आकृति का उतना महत्व नहीं है जितना कि विषय वस्तु के अंतर्निहित गुण एवं भाव की अभिव्यक्ति का है तथा इसके अलावा नित्य प्रकरण में जटिल सामाजिक -संरचना , मानवीय समस्याएं, विश्व में घटित घटनाएं इत्यादि भी विषय वस्तु के रूप में समाहित  है । फलत: अभिव्यक्ति के नये-नये रूप दृष्टिगोचर हुए हैं । नयी पीढ़ी के शिल्पी मूर्तिकला के परंपरागत माध्यम- संगमरमर, ब्रोंज , धातु , प्रस्तर, लकड़ी के अलावा प्लास्टिक , फाइबर, ग्लास, रबर , चमड़ा एवं स्टील प्लेट इत्यादि का उपयोग कर रहे हैं फलतः मूर्तिशिल्प नित्य नई-नई सम्मोहक संभावनाओं का द्वार खोलते जा रहा है ।  बंगाल के जिन कलाकारों ने मूर्तिकला में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है और आधुनिक भारतीय मुहाबरों में देश-विदेश में अपनी धाक जमाई है उनमें प्रमुख हैं – विमल कुंडु, गोपीनाथ राय , सुनील कुमार दास, श्यामल राय, सुभाष राय, सुनंदा दास, सुनील पाल एवं सुरजीत दास, रामकुमार मन्ना(टेराकोटा), इनु मन्ना(टेराकोटा) इत्यादि ।

उदारीकरण के बाद पश्चिम के प्रभाव में इंस्टालेशन  मूर्तिकला  में  एक  नई भाषा के रुप में ईजाद हुई है । हिन्दुस्तान में पहली बार विवान सुंदरम् ने इंस्टालेशन  का प्रयोग किया था। लोगो ने नकार दिया था । बाद में बंगाल के कलाकारों-वीणा भार्गव,परेश मैइती इत्यादि ने इसका उपयोग किया।

      मूर्तिकला में आधुनिकता भले ही चित्रकला की तुलना में तीन दशकों के बाद प्रारंभ हुई परंतु शिल्पगत प्रयोगों में मूर्तिकला ने जिस तेजी से विकास किया है , चित्रकला को पीछे छोड़ दे रहा है । विषय, माध्यम, और शैलीगत प्रयोग मूर्तिकला में नित्य किये जा रहे हैं तथा अभिव्यक्ति की नई भाषा, नई जमीन, तलाशी जा रही है । परंतु दु:खद स्थिति यह है कि कुछेक मूर्तिकारों की कृतियों को छोड़कर बाजार में अधिकांश मूर्तिकारों की कृतियाँ  पेंटिंग की तुलना में काफी कम दाम पर बिकती हैं । इसलिए युवाओं में मूर्तिकार बनने की वैसी प्रबल इच्छा नहीं होती जैसा कि रामकिंकर बैज , सोमनाथ होर और चिंतामणि कर जैसे मूर्तिकारों  को था ।

 कला- प्रदर्शनियों में भी मूर्तिकारों को फीलर के रूप में रखा जाता है । साल दो साल में भी शायद ही कभी कोलकाता के किसी गैलरी में सिर्फ मूर्तिकारों की मूर्तियाँ प्रदर्शित की गई हों । इसलिए कला के रूप में युवाओं की पहली पसंद चित्रकला है न कि मूर्तिकला । पेंटिंग की तुलना में मूर्ति ज्यादा स्थान छेकती है इसलिए ग्राहकों की भी पसंद पेंटिंग्स होती है ना कि मूर्तियाँ । कुछ कला संग्राहक, गैलरी और कारपोरेट हाउस मूर्तियों की खरीदारी करते हैं लेकिन उनकी पहली पसंद चर्चित मूर्तिकारों की कृतियाँ होती हैं , ना कि युवा मूर्तिकारों की । युवा मूर्तिकारों को चित्रकार की तुलना में ज्यादा स्ट्रगल करना होता है । जीवन यापन  के लिए युवा मूर्तिकारों को अन्य   कोई काम करना पड़ता है ।

     उदारीकरण के बाद हिन्दुस्तान के मूर्ति शिल्प में जिस प्रवृत्ति की शुरूआत हुई है , उसके केन्द्र में है – किसी आदर्श का नहीं होना । विस्मित और चकित कर देने वाली कृतियों से कलाकार चौकाते हैं । अनीस कपूर (भारतीय मूल के ब्रितानी कलाकार) ,  सुबोध गुप्ता , रवीन्द्र रेड्डी, भक्ति खेर , रकीब साह की मूर्तियाँ अंतर्राष्ट्रीय बाजार में करोड़ों में बिकती है । बंगाल के परेश मैइती भी वैसे कलाकार है जिन्होंने उदारीकरण के बाद अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त किया है । वे भी एक नई शिल्प भाषा गढ़ रहे हैं परंतु परंपरा से विछिन्न होने को उचित नहीं मानते हैं । ग्लोबल समय में भारतीयता की पहचान अगर किसी कलाकृति में नहीं हैं तो उसकी पूछ नहीं है । अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चीन के कलाकारों की कलाकृतियाँ हिन्दुस्तान के कलाकारों की कलाकृतियाँ से अधिक दाम में बिकती है क्योंकि उसमें चीनी संस्कृति की झलक होती है ।

 बंगाल में विभिन्न अंचलों में टेराकोटा माध्यम में बनी  मूर्तियाँ बहुतायत में  हैं जो बंगाल की विशिष्टता है। बंगाल की मिट्टी में नमनीयता अधिक है जिसके कारण मूर्ती बनाने में आसानी होती है तथा ये सहज ही उपलब्ध है। फलतः मिट्टी की मूर्तियाँ, खिलौने, टेराकोटा मंदिर बनाने की एक सुदीर्घ परंपरा बंगाल में है। पालवंश में बंगाल के कलाकारों ने उत्कृष्ट श्रेणी की मूर्तियों का निर्माण किया है। आठ से बारहवीं सदी तक बंगाल में बनी टेराकोटा की मूर्तियाँ उत्कृष्टता के लिहाज से पत्थर के मूर्तियों से बेहतर हैं।

 चंद्रकेतुगढ़, पहारपूर, तामलुक इत्यादि जगहों से उत्खनन में टेराकोटा की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। मौजूदा समय में बांकुरा कृष्णनगर मिटटी के खिलौने और मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। लेकिन उदारीकरण के बाद से चीन में बनीं मूर्तियाँ कृष्णनगर की मूर्तियों को मात दे रही हैं। कोलकाता के कुम्हार टोली में कुम्हार परंपरागत रूप से देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनाते आ रहें हैं। कुम्हार टोली के दुर्गा प्रतिमा की विदेशों में भी मांग है। अभी इसे बाज़ार की चुनौती नहीं मिली है। लेकिन मूर्तियों में व्यवहार होने वाली वस्तुओं की कीमत बढ़ने से कलाकारों की आमदनी कम हो गयी है। युवा लोग कोई विकल्प नहीं होने के कारण इस पेशे में हैं। लोक कलाकार को समाज में ना तो यथेष्ट सम्मान प्राप्त है और ना ही पैसा। इसलिए युवा लोग इस पेशे में आने से कतराते हैं। सरकार को चैहिये कि इन लोककलाकारों की मदद करें तथा प्रतिभाशाली कलाकारों को आगे बढ़ने का मौका मुहैया करें। लोक शिल्पियों के पास जो परंपरागत हुनर है उसे यदि सही प्रशिक्षण दिया जाय तो अंतराष्ट्रीय बाज़ार में देशज पहचान वाले कलाकृतियों की अच्छी कीमत मिल सकती है। 

सिन्धु कला

सिन्धु कला एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय कला है। यह सर्वमान्य है कि सिन्धु सभ्यता सर्वथा स्वदेशी है। हड़प्पा से प्राप्त नर्तकी की काँसे की मूर्ति तथा लाल पत्थर की एक मूर्ति का धड़, मोहनजोदड़ों से प्राप्त बैल तथा बन्दरों की आकृतियाँ आदि इस कला की सबसे महत्त्वपूर्ण कलाकृतियाँ हैं। इन कृतयों में जिस कला का परिचय मिलता है, वह सैली की सशक्त स्वाभाविकता, आकृति के विभिन्न अनुपातों के उत्कृष्ट ज्ञान और हर्ष एवं उल्लास की ऐसी भावनाओं से परिपूर्ण है जिनका अनुभव जीवन के स्पंदनशील क्षेत्र में ही हो सकता है। इस काल की कलाकृतियों में अनुभव तथा कौशल की पर्याप्त परिपक्वता का परिचय मिलता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि सिन्धु सभ्यता तथा आर्य सभ्यता कुछ समय तक सहवासिनी रहीं और परस्पर मेल से फली फूलीं। सिंधु सभ्यता के अंतर्गत हमें

 कलाकारो विकसित स्वरूप हमें देखने को मिलता है सिंधु सभ्यता के निवासी कला के प्रेमी थे तथा उन्होंने कला के विकास को पर्याप्त योगदान दिया सिंधु सभ्यता में हमें वस्तु कला मूर्तिकला स्थापत्य कला और चित्रकला आदि के प्रमाण मिलते हैं




मूर्तिकला

भारत में मूर्तिकला का वास्तविक आरंभ सिंधु घाटी के निवासियों ने किया सिंधु घाटी सभ्यता के अंतर्गत मूर्तिकला का अत्यधिक विकास हुआ यहां के नगरों की खुदाई में भाषण पत्थर धातु तथा मिट्टी की मूर्तियां प्राप्त होती हैं पाषाण तथा धातु की मूर्तियां यद्यपि कम है परंतु देख कलात्मक दृष्टि से उच्च कोटि की है पासाण यानी पत्थर की मूर्तियां सिंधु घाटी सभ्यता के अंतर्गत खुदाई में पाषाण से बनी हुई दर्जनों मूर्तियां प्राप्त हुई है हापा से हड़प्पा से तीन पत्थर की मूर्तियां मिली हैं पुजारी की पत्थर की मूर्ति यह 19 सेंटीमीटर ऊंची है इसमें पुजारी की दाढ़ी सवारी गई है कृपया छाप वाला शॉल ओढ़े हुए हैं उसका बायां कंधा ढका हुआ है लेकिन दाहिना कंधा खुला हुआ है मोहनजोदड़ो से 12 पत्थर की मूर्तियां मिली हैं यहां से प्राप्त मूर्तियों में पुजारी को की मूर्ति भीड़ तथा हाथी की मूर्ति उल्लेखनीय है

मौर्य कला

मौर्य कला का विकास भारत में मौर्य साम्राज्य के युग में (चौथी से दूसरी शदी ईसा पूर्व) हुआ। सारनाथ और कुशीनगर जैसे धार्मिक स्थानों में स्तूप और विहार के रूप में स्वयं सम्राट अशोक ने इनकी संरचना की। मौर्य काल का प्रभावशाली और पावन रूप पत्थरों के इन स्तम्भों में सारनाथ, इलाहाबाद, मेरठ, कौशाम्बी, संकिसा और वाराणसी जैसे क्षेत्रों में आज भी पाया जाता है।




मौर्यकला के नवीन एवं महान रूप का दर्शन अशोक के स्तम्भों में मिलता है। पाषाण के ये स्तम्भ उस काल की उत्कृष्ट कला के प्रतीक हैं। मौर्ययुगीन समस्त कला कृतियों में अशोक द्वारा निर्मित और स्थापित पाषाण स्तम्भ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण एवं अभूतपूर्व हैं। स्तम्भों को कई फुट नीचे जमीन की ओर गाड़ा जाता था। इस भाग पर मोर की आकृतियाँ बनी हुई हैं। पृथ्वी के ऊपर वाले भाग पर अद्भुत चिकनाई तथा चमक है। मौर्यकाल के स्तम्भों में से फाह्यान ने ६ तथा युवानच्वांग ने १५ स्तम्भों का उल्लेख किया है। गुहा निर्माण कला भी इस काल में चरम पर थी। अशोक के पौत्र दशरथ ने गया से १९ मील बाराबर की पहाड़ियों पर श्रमणों के निवास के लिए कुछ गुहाएँ बनवाईं। इनकी भीतरी दीवार पर चमकीली पालिश है। लोमश ऋषि की गुफा मौर्यकाल में सम्राट अशोक के पौत्र सम्पत्ति द्वारा निर्मित हुई। यह गुफा अधूरी है। इसके मेहराब पर गजपंक्ति की पच्चीकारी अब भी मौजूद है। ऐसी पच्चीकारी प्राचीन काल में काष्ठ पर की जाती थी।


सारनाथ का मूर्ति शिल्प और स्थापत्य मौर्य कला का एक अतिश्रेष्‍ठ नमूना है। विनसेन्ट स्मिथ नामक प्रसिद्ध इतिहासकार के अनुसार, किसी भी देश के पौराणिक संग्रहालय में, सारनाथ के समान उच्च श्रेष्‍ठ और प्रशंसनीय कला के दर्शन दुर्लभ हैं क्‍योंकि इनका काल और शिल्प कड़ी छनबीन के बाद प्रमाणित किया गया है। मौर्य काल के दौरान मथुरा कला का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। शुंग-शातवाहन काल के काल में इस राजवंश की प्रेरणा से कला का अत्यंत विकास हुआ। बड़ी संख्या में इमारतें बनी, अन्य पौराणिक कलाएँ विकसित हुईं जो सारनाथ की पिछली पीढियों के विकास को दरशाती हैं। इस युग की मजबूत जड़ अर्ध वृत्तीय मन्दिर वाली उसी पीढ़ी की नींव पर टिकी है। कला क्षेत्र में विख्यात भारत-सांची विद्यालय मथुरा का एक अनमोल केन्द्र कहा जाता है। जिसकी अनेक छवियां इन विद्यालयों में आज भी देखने को मिलती हैं।


मौर्यकालीन कला

कला की दृष्टि से हड़प्पा की सभ्यता और मौर्यकाल के बीच लगभग 1500 वर्ष का अंतराल है। इस बीच की कला के भौतिक अवशेष उपलब्ध नहीं है। महाकाव्यों और बौद्ध ग्रंथों में हाथीदाँत, मिट्टी और धातुओं के काम का उल्लेख है। किन्तु मौर्यकाल से पूर्व वास्तुकला और मूर्तिकला के उदाहरण कम ही मिलते हैं। मौर्यकाल में ही पहले—पहल कलात्मक गतिविधियों का इतिहास निश्चित रूप से प्रारम्भ होता है। राज्य की समृद्धि और मौर्य शासकों की प्रेरणा से कलाकृतियों को प्रोत्साहन मिला।



इस युग में कला के दो रूप मिलते हैं। एक तो राजरक्षकों के द्वारा निर्मित कला, जो कि मौर्य प्रासाद और अशोक स्तंभों में पाई जाती है। दूसरा वह रूप जो परखम के यक्ष दीदारगंज की चामर ग्राहिणी और वेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है। राज्य सभा से सम्बन्धित कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट था। यक्ष—यक्षिणियों में हमें लोककला का रूप मिलता है। लोककला के रूपों की परम्परा पूर्व युगों से काष्ठ और मिट्टी में चली आई है। अब उसे पाषाण के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया।


स्तूप

स्तूप (संस्कृत और पालि: से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ "ढेर" होता है) एक गोल टीले के आकार की संरचना है जिसका प्रयोग पवित्र बौद्ध अवशेषों को रखने के लिए किया जाता है। माना जाता है कभी यह बौद्ध प्रार्थना स्थल होते थे। महापरिनर्वाण सूत्र में महात्मा बुद्ध अपने शिष्य आनन्द से कहते हैं- "मेरी मृत्यु के अनन्तर मेरे अवशेषों पर उसी प्रकार का स्तूप बनाया जाये जिस प्रकार चक्रवर्ती राजाओं के अवशेषों पर बनते हैं- (दीघनिकाय- १४/५/११)। स्तूप समाधि, अवशेषों अथवा चिता पर स्मृति स्वरूप निर्मित किया गया, अर्द्धाकार टीला होता था। इसी स्तूप को चैत्य भी कहा गया है।  मौर्य शासक अशोक केेे काल में लगभग 84000 स्पुतो का निर्माण किया गया



कुषाण कला कुषाण वंश के काल में लगभग पहली शताब्दी के अंत से तीसरी शताब्दी तक उस क्षेत्र में सृजित कला का नाम है, जो अब मध्य एशिया, उत्तरी भारत, पाकिस्तान और अफ़्गानिस्तान के कुछ भागों को समाहित करता है।

कृष्णा कला 

कुषाणों ने एक मिश्रित संस्कृति को बढ़ावा दिया, जो उनके सिक्कों पर बने विभिन्न देवी देवताओं, यूनानी-रोमन, ईरानी और भारतीय, के द्वारा सबसे अच्छी तरह समझी जा सकती है। उस काल की कलाकृतियों के बीच कम से कम दो मुख्य शैलीगत विविधताएँ देखी जा सकती हैं: ईरानी उत्पत्ति की शाही कला और यूनानी रोमन तथा भारतीय स्ट्रोटोन से मिश्रित बौद्ध कला। ईरानी उत्पत्ति की शाही कला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण सात कुषाण राजाओं द्वारा जारी स्वर्ण मुद्राएं, शाही कुषाण प्रतिकृतियाँ (उदाहरण: कनिष्क की प्रतिमा) और अफगानिस्तान में सुर्ख कोतल में प्राप्त राजसी प्रतिकृतियाँ हैं। कुषाण कलाकृतियों की शैली कठिन, पुरोहितवादी और प्रत्यक्ष है और वह व्यक्ति की आंतरिक शक्ति व गुणों को रेखांकित करती है। इसमें मानव शरीर अथवा वस्त्रलंकार के यथार्थवादी चित्रण के प्रति कम अथवा लगभग कोई रुचि नहीं है। यह उस दूसरी शैली के विपरीत है जो कुषाण कला की गांधार व मथुरा शैलियों की विशेषता है।



अमरावती की कला एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय कला है।

आधुनिक आंध्र प्रदेश में स्थित अमरावती जैन मंदिर कला शैली के लिए विख्यात है। अमरावती कला का विकास एहोल राजवंश शासक सातवाहन द्वारा विकसित शैली है।

इस शैली में बुद्ध के विहारों को बताया गया है। यह शैली कृष्णा और गोदावरी नदियों के किनारे विकसित हुई हैं।

अमरावती स्तूप में उभारदार शैली में बुध्द के जीवन तथा जातक कथाओं को अंकित किया गया है। यहाँ बुध्द द्वारा हाथियों के समूह को वश में करते हुए दिखाया गया है। स्वदेशी शैली सफेद संगमरमर का उपयोग मूर्तियों को बनाने के लिए किया गया। गतिशील आकृतियों पर बल दिया गया है। मूर्तियों में त्रिभंग आसन (तीन झुकावों के साथ शरीर) का अत्यधिक प्रयोग




गुप्तकाल में मूर्तिकला

गुप्त कला का विकास भारत में गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में (२०० से ३२५ ईस्वी में) हुआ।[1] इस काल की वास्तुकृतियों में मंदिर निर्माण का ऐतिहासिक महत्त्व है। बड़ी संख्या में मूर्तियों तथा मंदिरों के निर्माण द्वारा आकार लेने वाली इस कला के विकास में अनेक मौलिक तत्व देखे जा सकते हैं जिसमें विशेष यह है कि ईंटों के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग किया गया। इस काल की वास्तुकला को सात भागों में बाँटा जा सकता है- राजप्रासाद, आवासीय गृह, गुहाएँ, मन्दिर, स्तूप, विहार तथा स्तम्भ।


चीनी यात्री फाह्यान ने अपने विवरण में गुप्त नरेशों के राजप्रासाद की बहुत प्रशंसा की है। इस समय के घरों में कई कमरे, दालान तथा आँगन होते थे। छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं जिन्हें सोपान कहा जाता था। प्रकाश के लिए रोशनदान बनाये जाते थे जिन्हें वातायन कहा जाता था। गुप्तकाल में ब्राह्मण धर्म के प्राचीनतम गुहा मंदिर निर्मित हुए। ये भिलसा (मध्य-प्रदेश) के समीप उदयगिरि की पहाड़ियों में स्थित हैं। ये गुहाएँ चट्टानें काटकर निर्मित हुई थीं। उदयगिरि के अतिरिक्त अजन्ता, एलोरा, औरंगाबाद और बाघ की कुछ गुफाएँ गुप्तकालीन हैं। इस काल में मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरों पर हुआ। शुरू में मंदिरों की छतें चपटी होती थीं बाद में शिखरों का निर्माण हुआ। मंदिरों में सिंह मुख, पुष्पपत्र, गंगायमुना की मूर्तियाँ, झरोखे आदि के कारण मंदिरों में अद्भुत आकर्षण है।

गुप्तकाल में मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र मथुरा, सारनाथ और पाटिलपुत्र थे। गुप्तकालीन मूर्तिकला की विशेषताएँ हैं कि इन मूर्तियों में भद्रता तथा शालीनता, सरलता, आध्यात्मिकता के भावों की अभिव्यक्ति, अनुपातशीलता आदि गुणों के कारण ये मूर्तियाँ बड़ी स्वाभाविक हैं। इस काल में भारतीय कलाकारों ने अपनी एक विशिष्ट मौलिक एवं राष्ट्रीय शैली का सृजन किया था, जिसमें मूर्ति का आकार गात, केशराशि, माँसपेशियाँ, चेहरे की बनावट, प्रभामण्डल, मुद्रा, स्वाभाविकता आदि तत्त्वों को ध्यान में रखकर मूर्ति का निर्माण किया जाता था। यह भारतीय एवं राष्ट्रीय शैली थी। इस काल में निर्मित बुद्ध-मूर्तियाँ पाँच मुद्राओं में मिलती हैं- १. ध्यान मुद्रा २. भूमिस्पर्श मुद्रा ३. अभय मुद्रा ४. वरद मुद्रा ५. धर्मचक्र मुद्रा। गुप्तकाल चित्रकला का स्वर्ण युग था। कालिदास की रचनाओं में चित्रकला के विषय के अनेक प्रसंग हैं। मेघदूत में यक्ष-पत्नी के द्वारा यक्ष के भावगम्य चित्र का उल्लेख है।






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