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Thursday, August 18, 2022

राजपूत चित्रशैली

राजपूत चित्रशैली  


वेसेषताए 

(1) लोक जीवन का सानिध्य, भाव प्रवणता का प्राचुर्य, विषय-वस्तु का वैविध्य, वर्ण वैविध्य, प्रकृति परिवेश देश काल के अनुरूप आदि विशेषताओं के आधार पर इसकी अपनी पहचान है।


(2) धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों में पोषित चित्रकला में लोक जीवन की भावनाओं का बाहुल्य, भक्ति और श्रृंगार का सजीव चित्रण तथा चटकीले, चमकदार और दीप्तियुक्त रंगों का संयोजन विशेष रूप से देखा जा सकता है।


(3) राजस्थान की चित्रकला यहाँ के महलों, किलों, मंदिरों और हवेलियों में अधिक दिखाई देती है।




(4) राजपूत चित्रकारों ने विभिन्न ऋतुओं का श्रृंगारिक चित्रण कर उनका मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अंकन किया है।


(5) मुगल काल से प्रभावित राजपूत चित्रकला में राजकीय तड़क-भड़क, विलासिता, अन्तःपुर के दृश्य एवं झीने वस्त्रों का प्रदर्शन विशेष रूप से देखने को मिलता है।


(6) चित्र संयोजन में समग्रता के दर्शन होते हैं। चित्र में अंकित सभी वस्तुएँ विषय से सम्बन्धित रहती हैं और उसका अनिवार्य महत्त्व रहता है। इस प्रकार इन चित्रों में विषय-वस्तु एवं वातावरण का सन्तुलन बना रहता है। मुख्य आकृति एवं पृष्ठभूमि की समान महत्ता रहती है।


(7) राजपूत चित्रकला में प्रकृति का मानवीकरण देखने को मिलता है। कलाकारों ने प्रकृति को जड़ न मानकर मानवीय सुख-दुःख से रागात्मक सम्बन्ध रखने वाली चेतन सत्ता माना है। चित्र में जो भाव नायक के मन में रहता है, उसी के अनुरूप प्रकृति को भी प्रतिबिम्बित किया गया है।

(8) मध्यकालीन राजपूत चित्रकला का कलेवर प्राकृतिक सौन्दर्य के आँचल में रहने के कारण अधिक मनोरम हो गया है।


(9) मुगल दरबार की अपेक्षा राजस्थान के चित्रकारों को अधिक स्वतन्त्रता थी। यही कारण था कि राजस्थानी चित्रकला में आम जनजीवन तथा लोक विश्वासों को अधिक अभिव्यक्ति मिली।


(10) नारी सौन्दर्य को चित्रित करने में राजपूत चित्रशैली के कलाकारों ने विशेष सजगता दिखाई है।


राजपूत शैली के प्रकार 

मेवाड़ी शैली 

इस शैली का प्रारम्भिक प्राप्त चित्र "श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी" है, जिसे 1260 ई. में महाराणा "तेजसिंह" के काल में चित्रकार "कमलचंद्र" ने चित्रित किया था। इस शैली का प्रारम्भ १७वीं शदी के प्रारम्भ में हुआ। महाराणा अमरसिंह के राज्यकाल में इसका रूप निर्धारण होकर विकसित होता गया। जितने विषयों पर इस शैली में चित्र बने ,उतने चित्र अन्य किसी शैली में नहीं बने।

 इस शैली की विशेषता यह [3] है कि मीन नेत्र ,लम्बी नासिका ,छोटी [4] ठोड़ी ,लाल एवं पीले रंग का अधिक प्रभाव ,नायक के कान एवं चिबुक के नीचे गहरे रंग का प्रयोग। इसके प्रमुख चित्रकार रहे हैं -साहिबदीन ,मनोहर ,गंगाराम ,कृपाराम, जगन्नाथ आदि हैं।


भित्तिचित्र 

राजस्थान भित्ति चित्रों की दृष्टि से बहुत समृद्ध प्रदेश है। यहाँ भवन के मुख्य द्वार पर गणपती ,द्वार के दोनों ओर भारी आकृतियाँ ,अश्वारोही ,लड़ते हुए [1]हाथी ,सेवक ,दौड़ते ऊँट ,रथ ,घोड़े आदि देखे जाते है। राजस्थान में भित्ति चित्रों को चिरकाल [2] तक जीवित रखने के लिए एक विशेष आलेखन पद्धति है , जिसे आराइश कहते हैं।


जयपुरी शैली

जयपुरी शैली का काल 1600 से 1900 तक माना जाता है। सवाई जयसिंह के काल में दिल्ली से मुगल बादशाह औरंगजेब की बेरूखी का सामना कर अनेक कलाकार जयपुर आये थे। मुगलों के यहाँ से आये चित्रकारों के कारण प्रारम्भ में इस शैली पर मुगल प्रभाव काफी था। इस शैली के चित्रों में पुरूषों के चेहरे पर चोट एवं चेचक के दागों के निशान दर्शाये गये हैं।हरे रंग का मुख्यतः प्रयोग है।




किशनगढ़शेली 

इस शैली का प्रारम्भ काल १८वीं शदी का मध्य है। यह बड़ी ही [5] मनोहारी शैली है। तोते की तरह सुन्दर नासिका,ढोड़ी आगे की ओर आयी हुई,अर्द्धचन्द्राकार नेत्रों का अंकन,धनुष की तरह भौंहे,सुरम्य सरोवरों का अंकन इसकी अपनी अलौकित विशेषताएं है। राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध चित्र इसी शैली का है,उसका नाम बनी-ठनी है और इसको निहालचन्द ने बनाया था।गुलाबी रंग का प्रयोग है।

  किशनगढ़ शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय एरिक डिक्सन व डॉ. फैयाज अली को जाता है। एरिक डिक्सन व कार्ल खंडालवाड़ा की अंग्रेजी पुस्तकों में किशनगढ़ शैली के चित्रों के सम्मोहन और उनकी शैलीगत विशिष्टताओं को विश्लेषित किया गया है।

पुरुष आकृति – समुन्नत ललाट, पतले अधर, लम्बी आजानुबाहें, छरहरे पुरुष, लम्बी ग्रीवा, मादक भाव से युक्त नृत्य, नुकीली चिबुक, कमर में दुपट्टा, पेंच बंधी पगड़ी, लम्बा जामा

स्त्री आकृति – लम्बी नाक, पंखुड़ियों के समान अधर, लम्बे बाल, लम्बी व सुराहीदार ग्रीवा, पतली भृकुटी (बत्तख, हंस, सारस, बगुला) के चित्र

किशनगढ़ शैली में गुलाबी व सफेद रंग की प्रधानता है, इस शैली में मुख्यतः केले के वृक्ष को चित्रित किया गया है।



बीकानेरी शैली 

कुछ विद्वानों के अनुसार इस शैली का शुभारम्भ 1600 ई. में भागवत पुराण के चित्रों से मानते हैं। राग मेख मल्हार का 1606 ई. में चित्रित चित्र को भी बीकानेर का माना जाता है। इस्मे पेंटर पेंटिंग के निचे तारीखे और अपना नाम लिखता है  प्रमुख चित्र – कृष्ण लीला, भागवत गीता, भागवत पुराण, रागमाला , बारहमासा, रसिक प्रिया, रागरागिनी, शिकार महफ़िल, सामंती वैभव के दृश्य

पुरुष आकृति – दाढ़ी-मूंछों युक्त वीरता का भाव दिखाती हुई उग्र आकृति, बड़ी पगड़ी, फैला हुआ जामा, पीठ पर ढाल व हाथ में भाला लिए हुए।

स्त्री आकृति – इकहरी तन्वंगी नायिका, धनुषाकार भृकुटी, लम्बी नाक, उन्नत ग्रीवा एवं पतले अधर, तंग चोली, घेरदार घाघरा, मोतियों के आभूषण व पारदर्शी ओढ़नी

उस्ता कला – बीकानेर शैली के उद्भव का श्रेय उस्ता कलाकारों को जाता है। इसका जन्म बीकानेर में हुआ, तथा यहाँ के चित्रकार अपने चित्र पर अपना नाम व तिथि अंकित करते थे।

राजा अनूपसिंह – इनके समय में बीकानेर शैली का स्वर्ण काल देखने को मिलता है। इनके समय के प्रमुख चित्रकार अलीरजा, हसन व रामलाल थे




बुँदिशैली 

इस शैली का प्रारम्भ १७वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ था। अट्टालिकाओं के बाहर की ओर उभरे हुए गवाक्ष में से झाँकता हुआ नायक इसकी अपनी विशषता है। इसके चित्रकार सुरजन,अहमद अली,रामलाल आदि हैं। राव उम्मेदसिंह बूंदी शैली राजस्थान की विचारधारा का प्रारंभिक केंद्र था राव उम्मेदसिंह के समय बूंदी शैली का सर्वाधिक विकास हुआ। इस शैली का राव उम्मेदसिंह द्वारा जंगली सूअर का शिकार करते हुए एक चित्र प्रसिद्ध है जिसका निर्माण 1750 ई में हुआ। इस शैली में शिकार के चित्र हरे रंग में बनाये गये है।

प्रमुख चित्र – पशु-पक्षी के चित्र, फल-फूलों के चित्र, रागमाला (सर्वाधिक प्रमुख चित्र), दरबार, घुड़दौड़, हाथियों की लड़ाई, बसंत रागिनी, बारहमासा, वासुकसज्जा नायिका।

पुरुष आकृति – पतला शरीर, बड़ी मूछें, झुकी पगड़ी।

स्त्री आकृति -आम के पत्तों जैसी आँखे, लाल चुनरी, लम्बी बाहें।

बूंदी शाली में लाल व पीले रंगों का प्रयोग सर्वाधिक किया गया है।

इस शैली में प्रमुखत: खजूर के वृक्ष को चित्रित किया गया है।

वर्षा में नाचता हुआ मोर राजस्थान की विशेषता है तथा यह क्षेत्र इसके लिए प्रसिद्ध है।

बूंदी शैली मुख्यतः मेवाड़ शैली से प्रभावित थी।

प्रमुख चित्रकार – राजा रामसिंह, राव गोपीनाथ, छत्रसाल और बिशनसिंह आदि ने बूंदी शैली को विशेष प्रोत्साहन दिया

बूंदी शैली में मुख्यतः बत्तख, हिरण व शेर जैसे पशुओं को चित्रित किया गया है।


लोकचित्रण

भित्ति चित्रण

-> महलों, मंदिरों, राजप्रासादों, हवेलियों, की दीवारों पर विविध प्रकार से चित्र बनाने की कला। भित्ति चित्र बनाने वाले चेजारे कहलाते है। शेखावटी की हवेलियां भित्ति चित्रों के लिया प्रसिद्द है।


मांडणा

-> शुभ अवसरों पर घर के आँगन में सफ़ेद खड़िया या गेरू द्वारा बनाये गए चित्रों को कहते है। बाड़मेर में मांडणों में मोर का विशिष्ट अंकन किया जाता है एवं नीले भूरे रंग में मांडने बनाये जाते है।


फड़ चित्रण

-> किसी देवी देवता की कपडे पर चित्रित कथा को फाड् कहते है।

पाबूजी की फड़ राजस्थान की सबसे लोकप्रिय फड़ है, जो नायक जाती के भील भोपों द्वारा बाँची जाती है।


देवनारायण जी की फड़

-> राजस्थान की सबसे प्राचीन एवं लम्बी फड़ है। इसका वाचन जंतर वैश्य के साथ गुर्जर भोंपे करते है।


पिछवाई चित्रण

-> नथवारा शैली का चित्रण, श्रीनाथ जी की मूर्ति के पीछे कृष्ण भगवन की बाल लीला के चित्र उकेरे जाते है। नरोत्तम नारायण को पिछवाई चित्रण के लिए 1981 में राष्ट्रपति पुरस्कार मिला


उदयपुर शैली

राजस्थानी चित्रकला की मूल शैली है।

उदयपुर शैली का प्रारम्भिक विकास राणा कुम्भा के काल में हुआ।

उदयपुर शैली का स्वर्णकाल जगत सिंह प्रथम का काल रहा। महाराणा जगत सिंह के समय उदयपुर के राजमहलों में “चितेरों री ओवरी” नामक कला विद्यालय खोला गया जिसे “तस्वीरां रो कारखानों”भी कहा जाता है।

विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतन्त्र नामक ग्रन्थ में पशु-पक्षियों की कहानियों के माध्यम से मानव जीवन के सिद्वान्तों को समझाया गया है।

पंचतन्त्र का फारसी अनुवाद “कलिला दमना” है, जो एक रूपात्मक कहानी है। इसमें राजा(शेर) तथा उसके दो मंत्रियों(गीदड़) कलिला व दमना का वर्णन किया गया है।

उदयपुर शैली में कलिला और दमना नाम से चित्र चित्रित किए गए थे।

प्रमुख चित्रकार – मनोहर लाल, साहिबदीन कृपा राम, उमरा।

चित्रों के विषय – आर्श रामायण, गीत गोविन्द, भ्रमर गीत।

प्रमुख रंग – लाल, पीला

वृक्ष, पशु, पक्षी – कदम्ब, हाथी,चकौर

पुरुष – गठीला शरीर, छोटा कद, लम्बी मूछें, पगड़ी, कमर में पताका, कान में मोती।

स्त्री – मछली जैसी आँखे , लम्बी नाक, पारदर्शी औढनी।


बणीठणी 

राजा सावंत सिंह (नगरीदास) की प्रेयसी थी, चित्रकारों ने इन्हें राधा के रूप में चित्रित किया।

कलाकार मोरध्वज निहालचन्द ने बणी-ठणी को राधा के रूप में चित्रित किया।

किशनगढ़ शैली में इस चित्र में नारी सोंदर्य को परिभाषित किया गया है।

बणी-ठणी का निर्माण 1778 में हुआ तथा इसका आकर 48.8 सेमी. × 36.6 सेमी. है।

यह चित्र आज भी किशनगढ़ महाराज के संग्रालय में मौजूद है तथा इसका एक मौलिक स्वरूप अल्बर्ट हॉल में रखा हुआ है जो सोंदर्य में मोनालिसा से भी कहीं आगे है।

एरिक डिक्सन ने बणी-ठणी भारतीय मोनालिसा की संज्ञा दी। बणी-ठणी का चित्र 5 मई, 1973 में डाक टिकिटों पर भी जारी किया गया।

वेसरि – किशनगढ़ शैली में प्रयुक्त नाक का प्रमुख आभूषण।

चांदनी रात की संगोष्ठी – चित्रकार अमरचंद द्वारा सावंत सिंह के समय बनाया गया चित्र।




कोटाशैली 

राजा प्रतापसिंह – अलवर शैली के जन्म दाता

प्रमुख चित्रकार – डालचंद, सालिगराम, बलदेव, गुलामअली, सालगा

योगासन अलवर शैली का प्रमुख विषय है।

मूलचंद हाथी दांत बनाने वाले प्रसिद्ध कलाकार थे।

बसलो चित्रण (बोर्डर का चित्र) – इस चित्र शैली के तवायफों (वेश्याओं) के अधिक चित्र बने।

महाराज शिवदान सिंह ने कामशास्त्र के चित्र बनवाये




नाथद्वारा शैली 

चित्रकार – नारायण, घीसाराम, चतुर्भुज, उदयराम, खूबीराम

विषय – कृष्णलीला, श्रीनाथ जी के विग्रह, राधा कृष्ण यशोदा के चित्र।

प्रमुख रंग – पीला, हरा।

पुरुष – पुष्ट शरीर, तिलक

स्त्री – तिरछी चकोर की आंखे, उरोजों का गोल उभार, मांसल शरीर, मंगल सूत्र

विशेष – पिछवाई चित्रण (मंदिर में मूर्ति के पीछे चित्र बनाना)



देवगढ़ शैली 

चित्रकार – बैजनाथ, चोखा, कँवला

विषय – शिकार के दृश्य, अन्तः पुर, राजसी ठाट-बाट, सवारियां।

विशेष – देवगढ़ शैली में जयपुर, जोधपुर,उदयपुर तीनों सहेलियों का प्रभाव है।




चावंड शैली 

चित्रकार – नसीरुद्दीन (निसरदी)

विषय – प्रताप के शाशनकाल में शुरू में एवं अमर सिंह के समय नसीरुद्दीन ने रागमाला ग्रन्थ चित्रित किया।

विशेष – आकाश को सर्पिला कार व् लहरिया दार तरंगित बादलों के रूप में प्रदर्शित किया।




जोधपुर शैली 

इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव हैं, जसवंत सिंह प्रथम का इस शैली का स्वर्णकाल काल रहा है।

इस शैली में चित्र राजकीय विषय के ऊपर बनाये गये है। इस शैली में अजंता शैली की परम्परा का निर्वाह किया गया है। मारवाड शैली के पूर्ण विकास का काल 16 वीं से 17 वीं सदी रहा है। यह शैली बाद में मुग़ल शैली सेइतनी से इतना प्रभावित हुई की अपनी सत्ता भी खो दी। मुग़ल शैली के प्रभाव के कारण इसमें विलासिता पूर्ण चित्र भी बनाये गये। यह शैली अंत में सामाजिक जीवन के प्रभाव में भी आई। 




रावमालदेव (1531 से 1562 )ई.

मारवाड़ की कला एवं संस्कृति का सम्पूर्ण श्रेय राव मालदेव को ही जाता है, इससे पूर्व यह शैली मेवाड़ से पूर्णत: प्रभावित थी।

राव मालदेव समय चोखेलाव महल में मार्शल जैसे चित्र बनाये गये। जिसमे बल्लियों पर राम-रावण युद्ध के बारे में चित्रण किया गया जिसका मूल उद्देश्य पौराणिक गाथाओं का यशोगान करना था।

इनके समय मारवाड़ एक स्वतंत्र चित्र शैली के रूप में उभरा


चित्रकार – नारायण दास, शिवदास, अमरदास, किशन दास, देवदास भाटी, वीरजी,रतनजी भाटी।

विषय – ढोल मारु, नाथ चरित्र, सूरसागर, रागमाला सैट, पंचतंत्र, कामसूत्र।

प्रमुख रंग – पीला

विशेष – आकाश को सर्पिला कार व् लहरिया दार तरंगित बादलों के रूप में प्रदर्शित किया।





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